नीर सम नारी की व्यथा
नीर सम नारी की व्यथा
हाल बेहाल हो गया है हमारे भारत का
त्रासद है गांव की माटी की तपती दास्ताँ
नीर की आस में तड़प रही है ये पृथ्वी एक ओर
नारी के लिए भी पानी है विडंबना चहुँ ओर,
घूँघट में छिपी नज़रें मिलती थी जब पनिहारिनों के साथ
बातों का पिटारा खुल जाता था यूँही पनघट के पास
चुग़लियों और ठिठोलियों से मिटा लेती थी ये बुझे मन की प्यास
लौट आती थी घर को घड़े भर भर ख़ुशी के साथ,
असीमित जल संसाधन से परिपूर्ण थी तब ये धरती
पानी के साथ खुशहाली भी प्रवाहित कर देती थी तब ये धरती
मुस्कुरा देती थी धरा जब गगरों से छलकता था निर्मल जल
अविचल धरा का मन भी हो जाता था तब चंचल,
फिर क्यूँ बूँद बूँद को तरसने लगे नदी ताल पनघट
क्यूँ घटने लगा इन जगहों से घड़ों का जमघट
पानी की त्राहि त्राहि का कैसा है ये पहपट
खाली कुओं की व्यथा दर्शा रहा है तलछट,
नगर महानगर में भी मची है पानी की हाय हाय
मिल जाते हैं फिर भी जल प्रदाय के उपाय
गाँव के सूखे पोखरों की दशा तो क्या ही कही जाए
स्रियाँ जहाँ बन गई हैं पानी ढोने का पर्याय,
कभी जो हाथ पहले चूल्हे से जला करते थे
पाँव में छाले घर की चाकरी से मिला करते थे
पानी के साधन पास होकर देते थे तब सहारा
अब तो गागर में सागर क्या बूंदों ने भी साथ छोड़ डाला,
मीलों दूर से पानी लाना बन गया है इनकी मज़बूरी
बही-बेटियां ही करती हैं इसमें एक दूजे की कमी पूरी
चुभती धुप और तपती धरती में भी चलना है ज़रूरी
इतने समर्पण के बाद भी क्यूँ है नारी समाज में गैर- ज़रूरी,
सदियों से ऐसे ही ओढ़े हैं ये दायित्वों का आँचल
फिर भी तानों के चिट्ठे खुले ही रहते हैं हरपल
पानी के लिए जब नाप जाती है ये कितने ही अंचल
तब क्यूँ नहीं होता इनके चाल चलन कोलाहल,
ग्राम- परिवेश में वैसे भी पिसती रही है स्री
पानी के भंवर संग डूबती रही है इसकी हस्ती
दोनों तलाश रहे हैं आगामी सीमित कल को
संभवतः नई पीढ़ी फिर से संवार दे इनके असीमित कल को,
सवाल नीर और नारी के सम्मान का है
परस्पर जुड़े रहे इनके अहसास का है
इनके सीमित कल में छुपे अभाव पर है
जो शोषण इनका हुआ उसके दुष्प्रभाव पर है,
किन्तु जवाब , जवाब तो सदियों से यही था और यही है
जिसके लिए ज़्यादा कुछ करना भी नहीं है
फ़र्क उस वक़्त भी हमारे नज़रिए में था और आज भी है
लेकिन आज ये वक़्त उस नज़रिए को बदलने का भी है।