निहत्था योद्धा-लेखक
निहत्था योद्धा-लेखक
हाथों में थामे सूती थैला,
पहने खादी का कुरता-पजामा,
साधारण से डील डौल वाला,
और आँखों पर चढ़ा मोटा चश्मा,
एक लेखक की छवि हमेशा,
आ जाती थी नज़रों के सामने;
लेकिन सही रूप में सोचूं तो…
अभिव्यक्ति के सागर में डूबकर,
शब्दनगरी के चक्रव्यूह को भेदकर,
स्वयं को लेखक के रूप में आँकना,
मानो विषम संकट में बगलें झाँकना,
इतना आसान नहीं है लेखक होना,
उस कागज़-कलम के वजन को ढोना;
शब्दों को एक माला में पिरोना,
अक्षर-अक्षर सलीके से संजोना,
हर किरदार को जीवंत रख कर,
मनोभावों को सृजनात्मक रूप देना,
हिलोरें जब जब लेते गहन विचार,
दौड़ती है कलम बड़ी तेज़ रफ़्तार;
खुद वो रंग नहीं,पर कितने रंग भरे,
जो प्रेम नहीं,पर शब्दों में प्रीत झरे,
गुमसुम होकर भी,बेजोड़ हास्य गड़े,
बस एक कलम सहारे,दुनिया से लड़े,
है जीवन की बारीकिओं की समझ,
उसकी हर शैली सरल और सहज;
उसकी कलम दिलों को मिलाये,
बंजर धरती पर भी हरियाली लाये,
निर्जीव में जैसे प्राण जगाये,क्यूँकि
हर गतिविधि पर है उसकी नज़र,
बस कलम के बल वो कहता जाए,
विस्तृत भाषा,शब्द,शैली,विचार,
बाँचता जिनसे वो स्वछन्द विचार,
लेखक को नई पहचान दिलाये,
तभी वो निहत्था योद्धा कहलाये;
ये सच है आसान नहीं लेखक होना,
अल्फ़ाज़ों में बंटना,लेखों को गढ़ना,
सपनो से लेकर...यथार्थ की डगर में,
कब लेखन...लेखक का पूरा होता है,
लेखक का परिचय सच मानो तो...,
अंत पड़ाव तक शायद अधूरा होता है !