नदी
नदी
मैं ग्लेशियर से करती शुरूआत,
बहुत छोटी सी धारा के साथ,
रास्ते में केई छोटे नाले और दरिया मिलते,
पहाड़ों से मैं कल-कल करती उतरती,
समतल इलाकोंं में पहूंचती,
और एक विशाल रूप ले लेती।
रास्ते में हर किसी की प्यास वुझाती,
किसानों को फसलों को पानी देती,
फिर हर किसी की भूख मिटाती,
लोगों के घर घर बिजली पहुंचाती,
साफ सफाई का ध्यान रखती,
परिवहन और माल ढुलाई के काम आती,
साहसिक खेलों में भी शामिल होती,
कभी कभी मनोरंजन का भी साधन बन जाती,
परियावरण को भी साफ रखती,
अंत में
सागर के गले लग जाती।
लेकिन अगर कोई करें छेड़-छाड़ मुझसे,
तो उग्र रुप में आ जाती,
सबकुछ अपने साथ वहां ले जाती,
काफी जान माल का नाश कर देती,
इसी वजह कई बार सूख जाती,
तो लोगो की प्यास नहीं बुझा पाती,
अकाल की नौबत आ जाती,
खाने पीने की कीमतें बढ़ जाती,
जनमानस के जीवन में कठिनाई आ जाती।
समझदारी इसी में,
नदी को वहने दो,
इसके वहाव को न रोको,
बिजली इसके वहाव पे ही बनाओ,
सब मिलजुल के जीवन बिताओ।
अगर कुदरत से करोगे छेड़खानी,
तो उपर वाला भी नहीं दिखाएगा मेहरबानी।