नदी की गुहार
नदी की गुहार
एक बहती नदी
जो सुख दुःख के
किनारों से
टकराकर चलती
चलती तो है
जब दुःखो का
पहाड़ गिरता
तो बादल से रिश्तें
मुँह मोड़ लेते
नदियाँ
सूखने लगती
पत्थर नग्न हो जाते
मानों किसी ने
गरीबी को उघाड़ दिया
बादल को लगाई अर्जी
मौसम में आना जरूर
क्योंकि ये तुम्हारा
कर्तव्य जो है।
स्वागत हेतु
प्रकॄति के रिश्तेदार
अभिवादन की
टकटकी लगाकर
निहारते तुम्हें
तुम बरसोगे तो ही
मै बहूँगी
और किनारों पर बसे
लोगों से कहती जाऊंगी
बादल मेरे जीवन के
प्राण है
रिश्तें है
अर्पण है
समर्पण है
तुम्हारे बरसने से ही
लोग पूजते मुझे
सूखने पर बन जाती
रास्ता राहगीरों का
घाट सूने
बन जाते निर्जीव
आचमन की आस हो जाती
कोसों दूर
कोई भागीरथ ही इस झोली को
गहरा कर
पुण्य ले सकता
गहराने से
बह तो नहीं सकती
स्थिर तो रह सकती
जहाँ कोई प्यासा प्राणी
कम से कम
अपनी प्यास तो बुझा सकें
नहीं तो
मेरी जैसी कई बहिनें
विलुप्त हुई
वैसे ही मैं
तो विलुप्त होने से बच जाऊंगी
लोगों को
दर्शन और प्यास से
अपना वर्चस्व बताऊंगी।