नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
तकिए पर अधलेटा-सा वो शख़्श
उतर जाता है मन के भीतर
बिन पगडंडियों के,
नींद की झपकियों के साथ
खिल जाते है गुलाब स्मृतियों के
जागती है चेतना
सीने पर हाथ बांधे
उसके साथ हथाई में
उसकी महक में ढलता हुआ मन
लौट जाता है
सितारों के ढलने पर
मन के भीतर उगे गुलाब
मुरझाने लगते हैं ।
अनजान बन पूछता है
क्यों कुम्हलाए-से हैं ये?
जैसे वो जानता ही नहीं
कि लौट कर भी
कहाँ लौट पाता है वो
रह जाता मेरे भीतर
सुवास की तरह
समेट कर भी खुद को
पसरा रहता है हवा-सा
अहसासों के गलियारों में,
उखड़ कर भी वह
पल्लवित होता रहता है
अनुराग के आंगन,
लोक में रह कर भी
अलौकिक बना देता है
हमारे दरमियाँ के
तमाम अव्यक्त मौन को।
मुझ अबोली नदी की
आत्मकथा को
कोई समझे भी तो कैसे?