नारी तेरे रूप अनेक
नारी तेरे रूप अनेक
उदासमना क्यों हूँ आज
क्यों नही बजते हृदय के साज
कभी तरंगित हो उठती
कभी निश्चेत सी पड़ जाती
क्या है हृदय में आज !
कभी भँवरे सी चुलबुली
कभी ठहरे पानी में खलबली
कभी राख की एक ढेरी
कभी कोहरे की चादर सुनहरी
कभी जुगनुओं सी चमक
कभी पायल की छनक
कभी फूलों सी महकी
कभी चिड़िया सी चहकी
कभी मछली सी तड़पी
कभी बहेलिये के जाल में अटकी
कभी नदिया सी बहती
कभी शांत मना रहती
कभी हिरणी सी चंचल
कभी सिसकती घुटती पल पल
कभी बकरी सी मिमियाती
कभी भेड़ सी सहमी
कभी शोख रंग बन उड़ जाती
कभी बगिया में खिल जाती
कभी पूजा का फूल
कभी गुलाब संग शूल
कभी देवी सा आदर पाती
क
भी पतिता सी ठुकराई जाती
कभी शिखर पर चढ़ मदमाती
कभी पैरों तले रौंदी जाती
कभी सिंहासन पर विराजमान
कभी कलियों सी मसली जाती
कभी आकाश को छू लेती
कभी पंख विहीन हो तड़पती
कभी रंगो की रानी कहलाती
कभी रंगविहीन कर दी जाती
कभी परिवार की धुरी
तो कभी टूटन का कारण
कभी माथे की बिंदीया
तो कभी कलंक कहलाती
कभी लज्जा की गठरी
कभी चौके की मठरी
कभी गले का हार
कभी वेश्या बन व्यापार
कभी सलोनी सी सूरत
कभी ममता की मूरत
कभी सती कभी निर्लज्ज
कभी पति का ताज
कभी मेनका रम्भा बन
पुरूष जाति पर राज
मैं आखिर
कब तक खुद को छलूँ
अब जो मुझे हो पसंद
क्यों न उसी में ढलूँ