औरत
औरत
खुद में ही खुद का वजूद तलाशती है औरत
घुट घुटकर भी हँसी का लिबास ओढ़ती है औरत!
सहनशील न होती तो बर्बाद हो जाते कितने ही घर
खुद को नींव का पत्थर बना घर को घर बनाती है औरत !
नौ देवियों के हर अवतार को धारण करती
एक मकान को घर और घर को स्वर्ग बनाती है औरत !
पुरुष समाज में अपने हर अधिकार को लड़ती
समाज को समाज कहलाने के लायक बनाती है औरत!
पीड़ित तन प्रताड़ित मन होकर भी
हर रात बच्चों को मीठी लोरी सुनाती है औरत!
सुबह से शाम घर नौकरी की चक्की में पिसकर
कुम्हलाए चेहरे पर मुस्कान की दुकान सजाती है औरत !
खुद दिन रात शमा की तरह जल जलकर
समाज को रौशनी की चमक से झलका देती है औरत !
अपमान का घूँट पी हर दुख को सीने में दफ़न कर
अंजुम हँसने और हँसाने का माद्दा जो रखती है
वो है औरत!