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अक्षिता अग्रवाल

Inspirational

4.7  

अक्षिता अग्रवाल

Inspirational

नारी सशक्तिकरण पर कविता

नारी सशक्तिकरण पर कविता

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एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी (शीर्षक)









माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।
जब मैं पहले खुद सशक्त हो पाऊंँगी।
तभी तो, किसी और लड़की को,
नारी सशक्तिकरण का सही अर्थ समझा पाऊंँगी।
जब मैं समाज के बंधनों को तोड़,
अपने निर्णयों की निर्माता खुद बन पाऊंँगी।
तभी तो, किसी की प्रेरणा बन पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, अपने हाथों से,
किसी और के हाथ की उंँगली में अंगूठी,
मैं भी ज़रूर पहनाऊंँगी।
अपने माता-पिता और भाई को,
शादी के बाद भी इतना ही प्यार करूंँगी।
अपने पुराने रिश्तों को कभी,
मैं भूल नहीं जाऊंँगी।
पहले, मैं यह कसम खाऊंँगी।
तभी, किसी और के हाथों से,
अपनी उंँगली में अंगूठी पहन,
नए रिश्ते को जोड़ पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मेैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, किसी और के नाम की हल्दी,
मैं भी लगाऊंँगी।
किसी और के रंग में,
मैं भी रंग जाऊंँगी।
पर, अपने रंग-ढंग,
मैं बिल्कुल भूल जाऊंँ।
यह मैं ना कर पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, मैं भी अपने हाथों पर,
किसी और के नाम की मेहंदी लगवाऊंँगी।
पर, अपने नाम और अपनी पहचान को,
मैं यूंँ ही नहीं भूल जाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, अपने हाथों से,
किसी और के गले में जयमाला पहना।
अपने अस्तित्व को और
अपने जीवन को नकार नहीं पाऊंँगी।
पहले, मैं यह कसम खाऊंँगी।
तभी, किसी और के हाथों से,
अपने गले में जयमाला पहन।
उसे अपना पति परमेश्वर नहीं,
बल्कि पूरे मन से,
अपना जीवनसाथी स्वीकार कर पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, मैं भी अपने माता-पिता से,
अपना कन्यादान ज़रूर करवाऊंँगी।
पर, अपने माता-पिता की बेटी हूंँ और
अपने माता-पिता की बेटी ही रहूंँगी।
कन्यादान के बाद भी,
मैं उनके घर की भी लक्ष्मी ही रहूंँगी।
यह रिश्ता ना किसी को बदलने दूंँगी।
और ना ही खुद कभी बदल पाऊंँगी।
कभी किसी त्योहार पर,
कभी किसी होली या दिवाली पर,
अपने माता-पिता को अपने ही लिए,
तरसता हुआ ना देख पाऊंँगी।
हर दिवाली उनके पास,
उनकी दिवाली रौशन करने,
मैं दौड़ी चली आऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, मैं भी किसी के संग फेरे लेने को,
अग्नि क इर्द-गिर्द सात चक्कर ज़रूर लगाऊंँगी।
पर, उस अग्नि में अपने सपनों की,
अपनी पसंद की और अपनी ख्वाहिशों की,
तिलांजलि मैं नहीं दे पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, अपनी मांग में सिंदूर,
मैं भी भरवाऊँगी।
पर, सिर्फ़ एक लाल रंग के लिए,
अपने जीवन में बाकी के रंगों को,
मैं नहीं छोड़ पाऊंँगी।
काला रंग मत पहनो,
शादी के बाद,
काला रंग पहनना अशुभ है।
मैं यह नहीं मान पाऊंँगी।
अगर मंगलसूत्र के,
काले मोती पहनना शुभ है।
तो, काले रंग के कपड़ों को अशुभ मान।
मैं उन्हें पहनना नहीं छोड़ पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, मुझे पसंद है।
पायल और चूड़ियांँ खूब सारी।
पर, इन सबसे प्यारी है।
मुझे मेरी आज़ादी।
इसीलिए,
मैं अपनी कलाई की चूड़ियों को,
हथकड़ियांँ नहीं बनने दे पाऊंँगी।
मैं अपने गले के मंगलसूत्र को,
फांँसी का फंदा नहीं बनने दे पाऊंँगी।
अपने पांँव की पायल को,
पैरों की ज़ंज़ीरें नहीं बनने दे पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

माना, मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
पर, विदाई की हर रस्म मैं भी निभाऊंँगी।
अपनी मांँ के आंँचल में,
चावल के दाने ज़रूर बिखेर कर जाऊंँगी।
पर, अपना आत्मसम्मान मैं,
अपनी मांँ के पास नहीं छोड़ कर जाऊंँगी।
विदाई की रस्म निभाने से,
मैं पराई नहीं हो जाऊंँगी।
शादी के बाद मेहमान बनकर नहीं,
पूरे हक़ से बेटी की तरह ही,
अपनी मांँ से मिलने आऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बनकर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
डोली में जाना, अर्थी पर ही आना।
जैसे शब्दों के मायाजाल में,
मैं नहीं यूँही फंँस जाऊंँगी।
मैं खुद सशक्त हूंँ।
मैं खुद एक लेखिका हूंँ।
अपने जीवन के नियमों को,
खुद अपनी कलम से,
कागज पर लिख पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
तुम्हारी जिम्मेदारी होगी,
तुम्हारे घर में मेरा मान।
मेरे माता-पिता का भी,
करना होगा पूरा सम्मान।
घर के बाहर लगी तख्ती पर,
लिखवाना होगा मेरा भी नाम।
गृहस्थी बसाने के लिए,
करना होगा दोनों को मिलकर काम।
यह वचन लेकर ही,
घर को अपना मान।
मैं गृह-प्रवेश की रस्म निभा पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।


मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
अपना सरनेम मैं,
यूंँही नहीं छोड़ पाऊंँगी।
तुम्हारा सरनेम भी मैं ज़रूर लगाऊंँगी।
अपने नाम के साथ दो-दो सरनेम लगाकर,
दोनों को बराबरी का सम्मान दे,
खुशी-खुशी अपनी ज़िंदगी बिताऊँगी।
पर, अपने माता-पिता का दीया सरनेम।
और उससे जुड़ी पहचान को,
मैं यूंँ ही नहीं छोड़ पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
अच्छी बहू बनने के लिए,
मायके का मोह तो छोड़ना ही होगा।
जैसे, नियमों का पालन मैं नहीं कर पाऊंँगी।
मेरा मायका और मेरी मांँ,
अनमोल है और सदा रहेगी।
मेरी मांँ मुझे विदा कर,
गंगा नहीं नहाएगी।
इसीलिए, मांँ की याद आने पर,
मांँ से मिलने के लिए,
मैं अपनी मां के पास दौड़ी चली आऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
देश संभाल सकती हूंँ।
और घर भी।
रोटी भले गोल ना सही।
पर, बना भी सकती हूँ।
और कमा भी।
नौकरी करना भी जानती हूंँ।
और देना भी।
इसीलिए,
अगर मैं बहू बनकर,
घर की जिम्मेदारियांँ निभा सकती हूंँ।
तो, अपनी मांँ के दिए गहने भी,
मैं बहुत आसानी से,
खुद ही संभाल पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
अगर, मारा कभी एक थप्पड़ तो,
मैं तुम पर चार थप्पड़ बरसाऊंँगी।
किसी के अत्याचारों को,
यूंँही नहीं सह जाऊंँगी।
नारी-शक्ति के साक्षात दर्शन,
मैं तुम्हें करवाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
शादी के बाद अपनी ही मांँ से,
मिलने की इजाज़त लेने के लिए,
बार-बार किसी के पास मैं नहीं जा पाऊंँगी।
पर, मांँ से मिलने के लिए,
कभी अपनी जिम्मेदारियों से,
मुंँह मोड़ कर नहीं आऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
खुशी-खुशी अपने माता-पिता के,
बुढ़ापे का सहारा बन जाऊंँगी।
ससुराल में सब की अपेक्षाएंँ,
पूरी करने के लिए,
मैं अपनी उपेक्षा नहीं कर पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूँ।
इसीलिए,
जब खुद सम्मान पाऊंँगी।
तभी, सब को सम्मान दे पाऊंँगी।
अच्छी बहू बनने के लिए,
अपना आत्मसम्मान दांँव पर नहीं लगाऊंँगी।
अच्छी बहु  कहो ना कहो मर्जी तुम्हारी।
अगर बुरी बहू  कहोगे तो भी मैं,
तुम्हारी इस मर्जी को खुशी-खुशी अपनाऊँगी।
अपने आत्मसम्मान को चोट ना लगने दूंँगी।
यह कसम खाकर ही,
अपना आत्मसम्मान साथ लाई हूँ।
यह बात बार-बार याद जरूर दिलाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।

मैं आज के जमाने की लड़की हूंँ।
इसीलिए,
मानती हूँ कि,
एक दिन मैं भी दुल्हन बनकर जाऊंँगी।
पर, सदियों पुरानी जंजीरों को,
जब मैं तोड़ पाऊंँगी।
अपने हक के लिए,
जब मैं खुद लड़ पाऊंँगी।
अपनी मंजिल को,
जब मैं खुद से ही पाऊंँगी।
अपने हिस्से का आसमान,
जब मैं खुद छूकर आऊंँगी।
शिक्षा पाकर जब मैं,
आत्मनिर्भर बन जाऊंँगी।
आत्मनिर्भर बनकर जब मैं,
देश को आगे बढ़ा पाऊंँगी।
समाज के रूढ़ीवादी नियमों का विरोध कर,
उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने की क्षमता,
जब मैं दिखा पाऊंँगी।
तब, मैं खुद को सशक्त  कहला पाऊंँगी।
तब बाकी लड़कियों को,
अपनी आने वाली पीढ़ी को,
नारी सशक्तिकरण  का सही अर्थ,
मैं समझा पाऊंँगी।
जब मैं एक लेखिका के तौर पर,
अपनी कलम से,
एक नया इतिहास लिख पाऊँगी।
तब,
मैं सशक्त हूंँ।
यह गर्व से कह पाऊँगी।
तब, मैं किसी की प्रेरणा बन पाऊंँगी।
हर नारी में शक्ति है।
अपने लिए पहला कदम,
खुद ही उठाना होगा।
नारी सशक्तिकरण का सही अर्थ,
स्वयं ही जानना होगा।
स्वयं एक नारी होते हुए,
दूसरी नारी का सशक्तिकरण होते हुए देख,
खुश होना होगा ।
तभी सही मायनों में,
हर नारी का सशक्तिकरण होगा।
आज मैं हर नारी से,
बस यही कहना चाहूंँगी।
और बस यही कह पाऊंँगी।
भविष्य में अपनी बेटी को भी,
मैं पहले नारी शक्ति  का एहसास करवाऊंँगी।
नारी सशक्तिकरण  का सही अर्थ,
मैं उसे समझाऊँगी।
स्वयं एक नारी होकर,
नारी की ही दुश्मन ना बनना।
उसे यह बताऊंँगी।
समाज के बंधनों को तोड़,
आगे बढ़ना मैं उसे सिखाऊंँगी।
अपने निर्णयों की निर्माता,
खुद उसे बनना सिखा पाऊंँगी।
तभी तो,
एक दिन मैं अपनी बेटी को भी,
दुल्हन बनाकर विदा कर पाऊंँगी।
एक दिन मैं भी दुल्हन बन कर जाऊंँगी।



समाप्त!!!!


जब आप एक आदमी को शिक्षित करते हैं,

तब सिर्फ एक आदमी शिक्षित होता है।

लेकिन, जब आप एक औरत को शिक्षित करते हैं,

तब एक पीढ़ी शिक्षित होती है…।


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएंँ


✍️अक्षिता अग्रवाल ✍️

     




 


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