नारी और बूंद
नारी और बूंद
वो, पेड़ की सबसे ऊंची डाल की
सबसे ऊंची पात ( पत्ते) पर थी।
भोर में उस पर नजर पड़ते ही मैं मुस्काई,
शायद गहरा था नाता कोई
धीरे, बहुत धीरे, वह, नीचे को बढ़ी,
पात थोड़ा नीचे को झुका और
निर्विकार भाव से उसे छोड़ दिया
जैसे पता हो उसे जाना ही था।
वो भी फिर कहाँ रुकी,
नीचे की डाल पर वैसे ही झुकी
और पात को छोड़ आगे बढ़ गयी
बार बार यही क्रम चलता रहा
न पात में मोह जागा,
न उसमें कोई नया स्पंदन I
आखिरी डाल की सबसे नीचे की पात
झरते झरते वह विलुप्त हो रही थी,
उसका सफर यही रुक गया था,
सुबह की हल्की धूप झिटकने लगी थी,
वह अन्तिम बार मुस्कराई
,
पात ने उसे अपने भीतर आत्मसात कर लिया
या यूं कहे उसने स्वयं को पात में खपा दिया।
पात का रुआब (चमक)
बढ़ गया था, वह और कोमल,
ताजा और नया लग रहा था,
पात भूल चुका था,
उस सावन की एक बूंद का त्याग और समर्पण।
वो बूँद अगर सबसे ऊँची डाल पर ही रुकी रहती तो ?
पर पात (पत्ता ) इतरा रहा था, झूम रहा था,
आसपास खिलती कलियों को
देखने को बेकरार था
भीतर समायी सावन की बूंद की
शख्सियत का अब उसे भान भी न था
पता नहीं क्यों ?
एक बूंद पानी आंखो के कोने से निकला
शायद किसी को श्रद्धांजलि देने चला
मन में विचार कौंधा सावन की बूंद और नारी ?
नारी और सावन की बूँद ?