नाराज़गी ख़ुद से
नाराज़गी ख़ुद से
वह नाराज थी
बेहद नाराज थी
उसने झूठ पकड़ा था
मगर ये पहली बार नहीं था
फिर भी वो नाराज थी
बेहद नाराज थी।
ऐसा नहीं था
की वह झूठ नहीं बोलती थी
कभी कभी खुद की
कभी दूसरों की
खुशी को
झूठ बोलती थी।
मगर इसबार
उसे नराजगी क्यों थी
उसकी जिंदगी
उससे बार बार
पूछती थी।
यार इसबार ऐसा
क्या हुआ ऐसा जो
पहले नहीं हुआ
पहले भी तो
तुमने नजरअंदाज किया।
वो उदास थी
मगर बदहवास न थी
सुन रही थी
सब सवाल चुपचाप
कुछ भी गलत नहीं था
हर सवाल सही था
उसने उठाते हुए
अपना टूटा हुआ मन
सलीके से
जिंदगी को दिया और कहा~
"कैसे समझाऊं क्या हुआ
क्या बताऊँ क्या हुआ
मेरा भरोसा
टूटता रहा है सही है
मैने भी कभी तोड़ा है
ये भी सही है
पर अब जैसे जैसे
भरोसे के जिस्म की परतें गलने लगी है
हल्की खंरोचें भी ज्यादा दुखने लगी है
झूठ मन पर बहुत भारी पड़ता है
अब मन भी कहाँ खुद को
संभाल रखता है।
अब तो मैं ही बची हूँ
खुद के पास,जिसे सुना ही नहीं
कभी ठीक से,
अब हम दोनों को ही है
एक दूसरे से आस
कि जी लेंगे साझे
कड़वे सच के साथ
कि अब हर सांस गिरवी
रखी है वक्त के पास
की क्यों ..
क्यों झूठ बोलना अब
खुद से,
जब कमी
है वक्त की
हर तरफ।"
हर दिन,
आखिरी दिन समझ,
समझाती रहती है
वह खुद को ही
यही सब
बड़बड़ाते हुए।