नादान थी मैं
नादान थी मैं
नादान थी मैं खबर न थी,
ज़िंदगी की भी पकड़ न थी,
दिन गुज़रते थे बेफ़िक्री से,
दोस्तों की भी कदर न थी।
लेकिन एक दिन ऐसा भी आया,
जब मैंने ख़ुद को तन्हा पाया,
समझी अपनी नादानियाँ,
दोस्तों को अपना बनाया।
पर वक़्त ने ऐसी करवट बदली,
रिश्तों में बढ़ चुका था फासला,
दोस्तों को अब फुरसत न थी,
उन्हें मेरी अब ज़रुरत न थी।।
