नादान सा दिल ,
टूट गया उसकी बातों से ,
भीगी पलकों पर ठहरे मोती ,
खामोश रातों में |
एक अजीब सा खंजर ,
भेद रहा था सीने को ,
खामोश लबों पर मद्धम स्वर थे ,
तन्हा रातों में |
एक किताब बिना पढ़े ही ,
कितनी बेमानी सी हो गई ,
कि सरे ~ए ~आम उसकी कहानी ,
कईयों की जुबानी हो गई |
मगर आदत सी हो गई है अब ,
इन सस्ते जुमलों की हमे ,
अपनी जवानी की झलक दिखाने को ,
चलो फिर से कुछ भड़क लिखें |
ये भड़क भी तो समाज में ही ,
कहीं ना कहीं से आती है ,
गर ये भड़क ना हो तो सच कहूँ ,
जवानी सस्ती हो जाती है |
इतनी कूट - कूट कर भरी हुई जवानी को ,
बताओ ज़रा हम कैसे निकालें ?
क्या चकले पर बैठ कर ही ?
ये अपना नारी जीवन संवारे |
नारी इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर ,
एक ऐसा अनोखा खेल है ,
जिसके अंदर अगर आप छिप गए ,
तो ये एक अंगूरी बेल है |
नारी का सम्मान नहीं गर ,
तो अपमान भी ना करो मेरे यारों ,
उसके धड़कते दिल को ना तुम ,
यूँ लहू से भेदो प्यारों |
नारी भी कर सकती है ,
देवों का सम्मान इधर ,
ये ज़रूरी नहीं कि वो गर भड़क लिखे ,
तो देवालय का रखे मुँह उधर |
इसलिये कभी ना करना किसी पुस्तक का ,
बिना पढ़े अपमान कभी ,
क्या पता उस पुस्तक में ,
बसती हो किसी की जान यहीं |
मुझे उम्मीद ना थी उससे ये ,
कि वो इस तरह से कह पायेगा ,
एक हंसमुख से दिल को वो भी ,
अपने खंजर का लहू दे जायेगा ||