ना रूठा कीजिए
ना रूठा कीजिए
खुदाया यूँ ना रूठा किजिए
हमसे गुलअज़ार-शरीके-ज़िन्दगी,
हमें मनाना नहीं आता।
इल्म नहीं है हमें इश्क जताने का,
जाहिदे नाफहम (नासमझ बैरागी ) हैं,
लज्ज़ते- इश्क लेना नहीं आता।
शीशा-ए-मय की तरह नाज़ुक हो तुम,
दस्ते शौक इसलिए नहीं रखते हम
कही तुम पर ना कोई जब्र ना हो जाए।
गुल-ओ-गुलशन को तकता हो जैसे कोई,
तुम्हें देख कर तबस्सुम छुपाना नहीं आता।
एहद- शबाब है तुम पे सहवा ( शराब ) सा,
ये भी तो बताना नहीं आता।
बीमारे- ग़म है,
फिर भी साजे-उलफ़त बजाना नहीं आता।
ना रूठा कीजिए यूँ हमसे,
के हमें मनाना नहीं आता।

