मज़हबी रंग
मज़हबी रंग


न जाने मैं अब्र से ये
क्या चाहता हूँ कि
प्यास को शोलों से
बुझाना चाहता हूँ
गर कोई हद होती है
इस जुनूँ की तो
बेख़ौफ़ मैं वो हद,
बेहद देखना चाहता हूँ
वो फ़ितना इक हर्फ़ है
शाइस्तगी का
कमबख़्त मैं उसे स्याही में
डुबोना चाहता हूँ
वो चाँद सा हमसफर है
इन स्याह रातों का
और मैं उसे हथेली पे
उगाना चाहता हूँ
वो चमक रहा है फलक पे
रौशनी की तरह
मैं उसे कमीज़ में बटन की
तरह टाँकना चाहता हूँ
वो मिसाल है कश्मीर की
मोहब्बत सा खुदाया
मैं उसे हिन्दोस्तान-पाकिस्तान
में बाँटना चाहता हूँ
वो नई-नवेली तासीर है
मसीहाई की
मैं उसे मज़हबी रंगों में
फेटना चाहता हूँ
वो ख़ुशबू है इस
मिल्कियत-ए-चमन का
मैं बारहाँ उसे बाँहों में
समेटना चाहता हूँ
उसका रूप है कि
सूरज का धूप है
मैं बेक्रां उसे अलाव की तरह
लपेटना चाहता हूँ