मज़दूर की व्यथा
मज़दूर की व्यथा
मैं मज़दूर हूँ पर मज़बूर नहीं,
हालातों से हारा हूँ फिर भी…
अन्दर से कमज़ोर नहीं,
हर निर्माण की नींव बना मैं
कंगूरे का अरमान नहीं,
हर कोई अपनी धौंस ज़माए
कोई मृदु व्यवहार नहीं,
श्रम,समय व स्वेद ही पूंजी
बाज़ार में इसका मोल नहीं,
राजनीति की रोटियाँ सीकती
घर में खाने को अब अन्न नहीं,
मैं दिखने में कमज़ोर मगर
इरादों से मज़बूर मज़दूर नहीं,
मेरे नाम पर कहाँ, कब, कितने पलते
इसकी मुझको कोई परवाह नहीं,
केवल मज़दूर बना श्रम साधता
यहाँ स्पष्ट मेरी कोई पहचान नहीं,
जबसे शासन व सत्ताएँ परवान चढ़ी
तब से,आशाएँ व इच्छाएँ वहीं खड़ी,
धैर्य वही था,श्रम वही था,स्वेद वही था
स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं था,
संग समय के यहाँ सब कुछ बदला
बदला केवल हमारा समय नहीं था,
मैं मज़दूर हूँ मज़बूर नहीं
समय का हारा हूँ कमज़ोर नहीं।