मज़दूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा
उठकर के नंगे पांव कहीं दूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
निकला है घर पहुंचने का अरमां लिए हुए
पैरों में छाले सिर पे है सामां लिए हुए
थककर के हारकर के मजबूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
जहां ज़िन्दगी है गुज़री उसे छोड़कर चला
सपनों के आशियां को वो तोड़कर चला
शीशों के सारे महलों को कर चूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
जो तख़्त वाले हुक्मरां थे देखते रहे
रोटी जो सियासत की थी वो सेकते रहे
जुमलों को साथ लेकर हुज़ूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
था खाली पेट उसपर लाठी भी खाई है
सड़कों पर रगड़ खाकर चोटें भी आईं हैं
पाकर के सज़ा एक बेक़सूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
जिसने तुम्हारे पैर के जूते तलक सिये
नालों में उतर करके न उफ़ तलक किये
झूठा तुम्हारा तोड़कर ग़ुरूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
वो ताकता रहा न तुमने हाथ बढ़ाया
रोटी की ज़रूरत थी तब साथ छुड़ाया
वीरान करके सहरा को वो नूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
मुल्क बनाकर के भी तो बाहरी था वो
चुभते हुए कांटों पे लिखी शायरी था वो
सदियों से भुलाया हुआ दस्तूर चल पड़ा
मज़दूर चल पड़ा है, मज़दूर चल पड़ा।
