मुरीद
मुरीद
ऐ सनम
तुम कितने दूर हो
फिर भी दूर नहीं हो
है ये कैसा तिलिस्म
दूरी इतनी लंबी
जैसे ज़मीं-आसमां की !
लगते हो
उस क्षितिज की तरह जहां
चूमते हैं ज़मीं-आसमां
इक-दूजे को !
आज तुम नहीं हो
फिर भी हो तुम
साथ मेरे
बनके आत्म-मीत
बसते हो मुझमें
रमते हो हर प-
मेरी रक्त शिराओं में
हो मेरे मन के मीत
इसीलिए तो तुम हो
मेरे सोलमेट
हो मेरा प्यार तुम
मेरी चाहत
मेरी प्यास
मेरी जिन्दगी भी
सबकुछ हो तुम्हीं तुम
सुनो तो ज़रा
ऐ सोलमेट मेरे
बस
हर सू तू ही तू
वक्त गुजरता रहा
मैं चलती रही साथ तेरे
बनके तेरी मुरीद
बस और कुछ न पूछो
हूं मैं तेरी ही मुरीद !

