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Yogeshwar Dayal Mathur

Inspirational

4  

Yogeshwar Dayal Mathur

Inspirational

मुलम्मा

मुलम्मा

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मुलम्मा चढ़ा गुरूर का 

मग़रूर से सराबोर थे

अल्फ़ाज़ों में गुस्ताखी थी

ज़ुबान काफी ग़ाफ़िल थी

पैर जमीं पर नहीं टिकते थे 

ऊंची उड़ानें भरते थे


उम्र ने हमें झिंझोड़ा था

मुलम्मा गुरूर का उतर गया

जो ज़हन गुरूर से आतिश था

अब साये जैसा ठंडा था

नज़रिया हमारा बदला था

ज़मीर हमारा समझ गया 


बुज़ुर्ग आँखों से जब देखा 

सब कुछ बदला नज़र आया

जो सब्ज़बाग लगाए थे 

बाग़ीचे अब वो बंजर थे 

अभिमान से बोला करते थे

वो अंदाज़ अब काफूर हुआ 


जो ओछे छोटे लगते थे 

उन सबका एहतराम किया 

जो रिश्ते हमसे टूटे थे 

उन सबसे नाता जोड़ लिया

जिन लोगों से हम कतराते थे 

उनका साथ तस्लीम किया


उधड़े रिश्ते जो जोड़े थे

उनपर पैबंद दिखाई दिए

ग़फ़लत में जो जख़्म दिए

वो ज़ख्म नहीं भर पाए थे 

खामियां औरों में देखी थीं

अपने में भी नज़र आईं


सफर में जब मुड़कर देखा 

अपना कहने को कोई न था

रवैये ने सबको दूर किया

सोचकर दिल मायूस हुआ  


मुलम्मा गुरूर का चढ़ता है 

इंसानियत बदनुमा हो जाती है 

जो चका चौंध से बच जाता है 

वो प्यारा इनसान कहलाता है 


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