मुलम्मा
मुलम्मा
मुलम्मा चढ़ा था ग़ुरूर का
सराबोर थे मग़रूर से
अल्फ़ाज़ों में गुस्ताखी थी
ज़ुबान भी काफी ग़ाफ़िल थी
पैर जमीं पर नहीं टिकते थे
ऊंची उड़ानें भरते थे
उम्र ने हमें झिंझोड़ा था
मुलम्मा ग़ुरूर का उतर गया
जो ज़हन ग़ुरूर से आतिश था
अब वो साये से भी ठंडा था
नज़रिया हमारा बदला था
ज़मीर हमारा समझ गया
बुज़ुर्ग आँखों से जब देखा
सब कुछ बदला नज़र आया
जहाँ सब्ज़बाग लगाते थे
बाग़ीचे अब वो बंजर हुए
अभिमान से बोला करते थे
वो अंदाज़ अब काफूर हुआ
जो ओछे छोटे लगते थे
उन सबका एहतराम किया
जो रिश्ते हमसे टूटे थे
उन सबसे नाता जोड़ लिया
जिन लोगों से हम कतराते थे
उनका साथ तस्लीम किया
उधड़े रिश्ते जो जोड़े थे
उनपर पैबंद दिखाई दिए
ग़फ़लत में जो जख़्म दिए
वो ज़ख्म नहीं भर पाए थे
खामियां औरों में देखी थीं
सारी खुद में नज़र आईं
सफर में जब मुड़कर देखा
अपने को हमने तनहा पाया
रवैये ने सबको दूर किया
सोचकर दिल मायूस हुआ
मुलम्मा ग़ुरूर का चढ़ता है
इंसानियत बदनुमा हो जाती है
जो इस से बच जाता है
वो प्यारा इनसान कहलाता है
