मुझे न लटकाओ क़यामत तक को अब्बू
मुझे न लटकाओ क़यामत तक को अब्बू
कोई कहता है, चलो चलें अब घर को
और मैं सोचूं घर कहाँ है अपना
कह गए मियाँ कबीरदास के
जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ
एक किताब पुरानी जिसका नाम हुआ करता है गीता
उसी में कोई भगवान् वगैरह कह के गए हैं
सारी दुनियाँ अपनी मानो, मेरे बच्चों
घर वापिस ही जाने का गर शौक बहुत है,
तो चलो ढूंढ़ते हैं के
आर्य वगैरह आखिर सारे आये कहाँ से इस धरती पे
कहाँ गया प्राचीन हड़प्पा
कहा गए वो राक्षस-वाक्षस
कहाँ गया लंका का सोना
कुछ तो दस-बारह फुट के जीवाश्म मिले होते जी ?
एक और लफड़ा है मिस्टर
वो ये कि
बुद्ध हों, जीसस, या पैगंबर
नया धर्म देने से पहले खुद भी तो कुछ और ही थे वो
और हमारे डार्विन चाचा तो कहते हैं
दुनिया तो बन्दर से आयी
तो क्या सबकी पूँछ हो उगा के
सब के सब बंदर हो जाएं।
देखो चच्चा, छोड़ो तुम अतीत की बातें
चाय बनाई है सो पी लो,
घर वापिस-फापिस न जाना मुझको
चाँद की मुझको सैर करा दो
जन्नत का तो पता नहीं मुझको कुछ ज्यादा
हूरें-वूरें क्या होंगी, मेरी गर्लफ्रेंड से ज्यादा अच्छी
दारू का अब शौक बचा भी नहीं है मुझको।
कहो ख़ुदा से जो देना है, यहीं पे दे दे
मुझको न लटकाओ क़यामत तक को, अब्बू
चाँद से लेकिन - सुना है मैंने
धरती ख़ूब मस्त लगती है ?
बोलो तो फिर ?
चलें चाँद पे ?
खासी मस्ती मारेंगे
जिंदा ज़न्नत पा लेंगे।
