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विजय बागची

Abstract

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विजय बागची

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मुझे भी नाम चाहिए

मुझे भी नाम चाहिए

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फ़रिश्ते भी पढ़े मुझे वो नाम चाहिए,

महफिलों से भरा इक शाम चाहिए,

डबडबाता हुआ इक ज़ाम चाहिए,

फ़ुरसत ही न मिले वो काम चाहिए,


मुझे भी अब आराम चाहिए,

झुके सर मिरा वो धाम चाहिए,

ग़मों से लथपथ शहर नहीं,

खुशियों भरा ग्राम चाहिए,

फ़रिश्ते भी पढ़े मुझे वो नाम चाहिए।


ज़िन्दगी में बस थोड़ा-सा जाम चाहिए,

कहीं-कही अल्पविराम चाहिए,

कभी-कभी अंत्यविराम चाहिए,

हर काम मिरा तमाम चाहिए,


ऐसा ही कुछ इंतज़ाम चाहिए,

गर्मी में शीतलता हो बहुत,

सर्दी में….. ...घाम चाहिए,

फ़रिश्ते भी पढ़े, मुझे वो नाम चाहिए।


मंज़िल पर पहुँचूँ वो गाम चाहिए,

दर्द में मरहम और बाम चाहिए,

इस शुकूँ की बस्ती में…

हर दरिंदा  बदनाम चाहिए,

कॉमा नहीं पूर्णविराम चाहिए,


किसी गली में नहीं सरेआम चाहिए,

मुझे मेरे हक़  का इनाम चाहिए,

फ़रिश्ते भी पढ़े, मुझे वो नाम चाहिए।


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