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Goldi Mishra

Abstract

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Goldi Mishra

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मशगूल

मशगूल

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ये छाया जो सुरूर है,

एक मुसाफ़िर अपनी ही धुन में मशगूल है,

किरदार की पहचान ना थी,

एक उम्र बस इल्जाम से भरी थी,

गुंजाइशों को ढूंढ़ते है,

हम ठोकरों को भी सीने से लगाते है,


ये छाया जो सुरूर है,

एक मुसाफ़िर अपनी ही धुन में मशगूल है,

नमी आंखों में बेशक थी,

गुनाह हर कुबूल किया पर एक भी गुस्ताखी हमसे ना हुई थी,

ज़माने में सब गैर थे,

किस किस को समझाते सबकी आंखों पर परदे थे,


ये छाया जो सुरूर है,

एक मुसाफ़िर अपनी ही धुन में मशगूल है,

सबके सही में मेरा सही कहीं खो गया,

गलत का ताज ले कर मै अपनी राह पर चल दिया,

मेरा आज बुरा था कल कुछ अलग होगा,

एक साथ उम्र भर का कहीं तो होगा,


ये छाया जो सुरूर है,

एक मुसाफ़िर अपनी ही धुन में मशगूल है,

डर सा लगता है एक नए रिश्ते जोड़ते वक़्त,

रिश्ते मोती से बिखरते है जुदाई के वक़्त,

मुझे जख्मी देख भी कोई करीब ना आया,

वक़्त बुरा था मेरा पर असली चेहरा सबका नज़र आया,


ये छाया जो सुरूर है,

एक मुसाफ़िर अपनी ही धुन में मशगूल है,

धूप धूप सा मैं था एक छांव सी राहत है मेरी तनहाई,

मै मुसाफ़िर सा भटका हूं ना जाने ज़िन्दगी अब कहाँ ले आयी,

मैंने ढूंढा बहुत पर सुकून कहीं ना मिला,

जो समझे मुझे ऐसा साथ कहीं ना मिला।


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