STORYMIRROR

Krishna Bansal

Abstract

4  

Krishna Bansal

Abstract

मृत्यु का भय

मृत्यु का भय

2 mins
327


क्योंकि मृत्यु अज्ञात है और

किसी भी अज्ञात स्थिति 

से भय लगता है 

मृत्यु से भी भय लगता है।

हमारे यहां मृत्यु के बारे में

कभी खुल कर बात ही नहीं होती 

कभी कभार हो भी जाती है 

जब किसी की मृत्यु हो जाए

विशेष तौर पर किसी सम्बन्धी,

मित्र या फिर पड़ौसी की मृत्यु पर 

अन्यथा नहीं।

इस कारण भय बना रहता है।


जीते जी आप मृत्यु का 

अनुभव नहीं कर सकते 

मृत्यु का अनुभव करने के लिए मरना पड़ता है 

आदमी में जीजिविषा 

इतनी जबरदस्त है 

वह मरने के नाम से ही

बिदकता है। 


जन्म कितना भी कष्टदाई रहा हो

जन्म लिए बिना जैसे

इस संसार का अनुभव नहीं हो सकता 

वैसे ही बिना मरे नहीं जाना जा सकता कि 

मृत्यु के बाद क्या होगा।


मृत्यु अवश्यंभावी है 

कहां कैसे और कब होगी 

यह तो पता नहीं 

यह सब जानते हैं 

जो पैदा हुआ है 

उसे जाना ही है एक दिन 

भलाई इसी में है 

नकारा न जाए बल्कि 

इस तथ्य को अंगीकार 

कर लिया जाए 

जिस स्थिति का हमें 

एक दिन सामना करना ही है

जिसको हमें एक दिन 

सहना ही है 

उसका भय क्यों ? 

 

दिन रात 

सुबह शाम 

प्रतिदिन चारों ओर 

मौत का नंगा नाच देखते हैं

केवल प्राणधारियों की ही नहीं

वनस्पति और

जड़ वस्तुओं की मृत्यु को भी।

फिर भय कैसा? 


यह हमारा है अहम् और वहम् 

हम स्वयं को बहुत महत्व देते हैं

हमारे बिना यह संसार चलेगा कैसे

समझते हैं दुनिया में 

हमारे जैसा पैदा ही कोई नहीं हुआ

हम ही ईश्वर की चुनिंदा कृति है 

हम तो स्तंभ हैं 

यह दुनिया हमारे बगैर सूनी हो जाएगी 

ओ भाई 

सिकंदर जैसे महान सम्राट

चले गए सम्राट अशोक व चन्द्र गुप्त 

कूच कर गए 

राजे महाराजे 

ऋषि मुनि चलते बने

हम और आप तो हैं 

किस खेत की मूली।

 

जब एक दिन मृत्यु के आगोश में जाना ही है 

चाहे अमीर हो या गरीब 

शिक्षित- अशिक्षित 

खूबसूरत- बदसूरत 

बड़ा या छोटा 

बूढ़ा या बच्चा 

मृत्यु किसी व्यक्ति विशेष के जीवन का हिस्सा नहीं है 

यह तो सबके साथ होना है 

फिर भय क्यों? 


जिस दिन 'वह' आए 

स्वागत करो

बाहें पसार कर कहो 

तुम्हारी ही प्रतीक्षा मैं कर रहा था/थी।


यह तभी संभव है 

जब आप भूत को नहीं पालते

भविष्य की चिंता नहीं करते और हर पल,

जी हां, हर पल वर्तमान में ही जीते हैं।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract