मोरी
मोरी
छोटी सी इस मोरी में, भरा सावन का नीर,
मिला माटी से जब जब ये,
बना एक मटमैला रूप,
ना है ये नदी सा निर्मल,
ना ही सागर सा गहरा,
फिर भी है तो पानी ही,
मगर ना छूता इसे कोई,
ना ही देखता एक झलक,
फिर भी बहता ये हौले हौले,
वाक़िफ़ अपनी तक़दीर से,
कि सावन भर का जीवन मेरा,
इस मोरी को छोड़ चला मैं,
बनकर ऊष्ण, फ़िज़ा में मिलकर,
या फिर गुम किसी गहरे बवंडर में।
