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मोर और बाज़

मोर और बाज़

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मोर

बेजोड़ कलंगी, अद्भुत ग्रीवा

अनुपम सौन्दर्य ईश्वर ने बख्शा !

नाचा जब पंखों को लहरा के,

सहस्त्र इन्द्रधनुष सा बिखरा !!

नाच नाच के मन हर्षाए,

फिर भी आँख से अश्रु छलका !

हाय मोर की बेबसी तो देखो,

आजीवन ऊँची उड़ान को तरसा !!


बाज़

लोग समझते हैं इसको अपशगुनी,

सौन्दर्य भी नहीं दिया प्रभु ने !

बाज़ भरता है ऊँची उड़ान,

स्वछन्द विचरता है आसमान में !

मगर इस ऊँचाई की सजा यही है,

चहुँ ओर मिलते गहरे वीराने !

आसमान के संग ज़मीन भी होती,

तो जीवन के बदल जाते मायने !!


निष्कर्ष

मोर नाच कर भी रोता है,

कि वो उड़ नहीं सकता !

बाज़ ऊँचा उड़ कर भी रोता है,

कि वो रह गया है तन्हा !!


कहीं कुछ तो कहीं कुछ कमी है,

बेबसी तो हर मन में बसी है !

सबकी पीड़ा का दायरा अलग है,

ज़िन्दगी तो अश्रू के संग हंसी है !!


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