मनुष्य और प्रकृति
मनुष्य और प्रकृति
क्या तुमने देखा है, प्राची के नभ में छाई,
रक्त-पीत ऊषा की रक्तिम आभा को?
क्या तुमने देखा है, नैराश्यांधकार को चीरकर आती,
आशाओं की लालिमा को?
क्या तुमने महसूस किया है,
धीमे-धीमे रीसती, दम तोड़ती, अभागिन कालिमा को?
क्या तुमने महसूस किया है,
नील-गगन के कृष्ण-वसन को,
धीरे-धीरे दरकते हुए,
पल-पल बदलते रक्त,
पीत, श्वेत रंगों का चोला पहनते हुए?
क्या तुमने देखा है,
अहेरी द्वारा ठेलकर लाई जाती नव रश्मियों को,
जो चुन-चुनकर तम का शिकार करती,
श्वेत फेन गिराती, धीरे-धीरे धरती पर उतरती हो?
क्या तुमने सुना है, दिनकर के आने से पूर्व
खग-वृंद के कलरव को?
क्या तुमने जिया है उन पलों को,
ब्रह्मा-मुहूर्त में नदी में उतरकर,
डुबकी लगाकर तन-मन की,
मंदिरों की घंटी, शंखनाद के मधुर स्वरों को कानों में घोलकर,
जब खुद को ईश्वर में एकाकार किया हो?
क्या तुमने कभी प्रण किया है,
दिनकर से पहले आकर अपनी दिनचर्या शुरू करने का,
निशा के कलुष को ऊषा-स्नान से पवित्र करने का?
यदि नहीं तो तुम तन-मन और
आध्यात्मिक रूप से दिवालिया हो चुके हो,
समाप्त हो चुके हो, मनुष्य के रूप में,
अब बस केवल चमड़ी की मशीन ही बचे हो।