मनुज!! अब तो सम्हल जा तू
मनुज!! अब तो सम्हल जा तू
तुझको लगा तुझको मिटा दे,
दम वो किस्में है,
तेरी हस्ती ज्ञान का,
जो अहम तुझमें है,
उस अहम में रौंदता तू,
जा रहा कुदरत,
तू है कुदरत से बड़ा,
ये भ्रम जो तुझमें है,
अब देख तेरी क्या दशा है,
आज ऐ मानव,
असहाय छोटा जीव बनकर,
है खड़ा दानव,
तेरा सब विज्ञान क्यों,
अब हारता इससे,
तूने जीता चांद को,
क्यों भागता इससे,
तेरे दावे ज्ञान के,
सब खोखले से हैं,
सौ बरस के बाद भी,
हम उस ही जगह पर हैं,
हां मगर इन सौ बरस में,
कुछ तो बदला है,
प्यार और मानवता को भी,
मानव तूने छोड़ा है,
तू भागता ही जा रहा है,
दूर खुद से ही,
हर कदम पर प्रकृति का,
नियम तोड़ा है,
प्रकृति को तूने जितना,
कष्ट पहुंचाया,
बेजुबान जीव पर जो,
कहर सब ढ़ाया,
उन गलतियों की ऐ मनुज,
ये एक झांकी है,
आज भी जो तू ना समझा,
प्रलय बाकी है,
प्रकृति को मां समझ,
ये दास ना तेरी,
तेरे जीवन की किरण,
ये आस है तेरी,
सब अहम को त्यागकर,
अब तो सम्हल जा तू,
प्रकृति को छेड़ मत,
इसमें ही मिल जाए तू।
कि अब तो सम्हाल जा तू।।