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Sanjay Aswal

Abstract

4.8  

Sanjay Aswal

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मन

मन

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अक्सर 

जब हम चलते फिरते, 

कविताओं की खोज में भटक रहे होते हैं,

कल्पनाएं हमारी हिलोरे लेने लगती है,

अपने ही भाव में मद मस्त बहने लगती है,

शब्दों का चयन दिलों - दिमाग में ताना बाना बुनता है, 

फूलों की खुशबू को 

हर डाली से चुरा रहा होता है,

पंछियों का कलरव,

भौंरों का गुंजन,

बलखाती नदी का कल कल ध्वनि नाद,

औंस की बूंदों का पत्तियों में सरकना,

पहाड़ों पर कोहरे की चादर जब छाने लगती है,

दिल में लौटी ठंडक ठिठुरन पैदा करती है,

तब ऐसा लगता है

जैसे कल्पनाओं को मेरे"पर" लग गए हों,

पर फिर सहसा, 

उन कल्पनाओं,

उनसे उपजे भावों को कागज पे उकेराना शुरू करते हैं तो 

शब्द पंक्तियों में अपना रास्ता बदल देते हैं,

दिल की गहराइयों से निकले,

अंतर्मन की चासनी से उतरे

उनके अर्थ कागज पर 

वो जादुई असर नहीं छोड़ पाते 

जैसे वो मन मे होते हैं।


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