मन की पतंग
मन की पतंग


बस यूं आसमान की
गहराइयों को,
देखती रही मैं,
पतंग उड़ती रही,
उसे खींचती रही मैं,
पता ही ना चला
यूँ खेल खेल में,
जिस और हवा थी,
बस उस और,
भागती रही मैं,
पतंग उड़ती रही,
उसे खींचती रही मैं।
सोचा भी ना ये कभी,
डोर तो था ही हाथ में,
फिर भी क्यूँ ना संभला गया,
और जाने किस किस और
मुड़ती रही मैं।
वो आसमान में था,
और मेरे पैर ज़मीन पर,
फिर भी संग उसके,
जाने कहाँ कहाँ,
उड़ती रही मैं।
बस यूँ आसमान की
गहराइयों को,
देखती रही मैं।