मज़दूर
मज़दूर
ख़ुशियों से हर बार जाने,
कैसे इतना दूर है ?
श्रम की सीढ़ी चढ़ता रोज़,
वो तो एक मज़दूर है।
बना के वो महल दो महल,
ख़ुद एक कमरे को महरूम है।
खुला आसमां घर है जिसका,
वो तो एक मज़दूर है।
पुरे दिन यूँ मेहनत करता,
हर शाम वो थक कर चूर है।
भोर हुए फिर चले काम पर,
ऐसा श्रमिक मज़दूर है।
क्या है पास जिसका ख़ुद पर,
करे कभी ग़ुरूर है?
कपड़े संग सपने भी चिथड़े,
वो तो एक मज़दूर है।
सुना था मेहनत रंग लाती है,
फिर कैसा ये दस्तूर है ?
जो उम्रभर मेहनत कर गुज़रा,
वो तब भी एक मज़दूर था,
वो अब भी एक मज़दूर है।
