मिट्टी की गुड़िया
मिट्टी की गुड़िया
जिसने जिस आकार में ढाला, ढलती चली गई,
मैं मिट्टी की गुड़िया हर रूप में खुदको गढ़ती चली गई।
कभी अपनों की होकर जी ली,
तो कभी अपनों ने गैरों संग बाँधा,उनकी हो ली।
मैं मिट्टी की गुड़िया हर हाल में जी ली।
कोमल-मन,नाज़ुक-काया सबको मेरा ये रूप है भाया,
जब आहत हो खुदके लिए जीना चाहा,
मेरे अपनों ने ही मुझे मिट्टी में मिलाया।
फिर से नए साँचे में ढलकर नए आकार की हो ली,
एक बार फिर टूट कर जुड़,दूसरे के हिसाब से जी ली।
अंदर कितना आघात है,
कोई नहीं जानता मेरे भी जज़्बात हैं।
ये कोई नहीं जानता।
अंदर तकलीफ से जब आंँखें नम हुई ,
मिट्टी की गुड़िया, सूख कर फिर एक सी हो ली।
अपने लिए जब जीना चाहा,
अपने अस्तित्व को जब स्वाभिमान से गढ़ना चाहा।
अपनों ने ही तेज बारिश में जा धकेला,
आँसू और बारिश क्या सच है मेरा !
मिट्टी की गुड़िया आज मिट्टी मैं ही ढेर हो ली।