मिटेगा अंधेरा नहीं जुगुनूओं से
मिटेगा अंधेरा नहीं जुगुनूओं से
जबसे छले वो गए दोस्तों से।
शिकवा गिला न रहा दुश्मनों से।।
उठे थे दुआ के लिए हाथ कल जो,
वही वार करते हैं अब खंजरो से।
सत्ता के भूखे बदल कर मुखौटे,
निकले सियासत के फिर जंगलों से।
जुल्मों सितम का बढ़ा खौफ इतना,
निकलते नहीं लोग अपने घरों से ।
दंगों व दहशत जुनूँ के सिवा क्या,
मिला है किसी को कभी नफरतों से।
जिधर देखिए है उधर सिर्फ़ पशुता ,
इन्सानियत गुम हुई बस्तियों से ।
बनीं योजनाएँ तो अच्छे दिनों की,
मिलीं न निजातें मगर मुश्किलों से।
जहाँ लोग आबाद फुटपाथ पर हों
तरक्की नहीं आँकिए कोठियों से।
घर-घर में है दीप जलना जरूरी,
मिटेगा अँधेरा नहीं जुगनुओं से।
खुद मंजिलें पास आयेंगी चलके,
बढ़ते रहे गर कदम हौसलों से ।