महाराणा और भामाशाह
महाराणा और भामाशाह
मातृ धरा की
आजादी की खातिर
वनों की खाक छानते
फिरते थे राणा प्रताप....
हुए अधीर
नहीं धन-राशि....
क्यूँ कर कटेंगी बेेेड़ियाँ
बंधन - ग्रस्त मेेवाड़ धरा की.......?
माँ के नयनों का नीर
क्या नहीं
पोंंछ पाऊँगा मैं.......?
हुआ हताश-निराश जब
माँ भारती का यह सपूूत
ध्रुव तारे-से
चमके थे भामाशाह तब
अँधियारे आकाश मेें.....
कर अर्पण
समस्त संचित धन
स्वामी के चरण-कमलों में.....
किया विनीत निवेदन था.....
इस धरा ने दिया
इसी के हित करता हूँँ अर्पण.....।
भामाशाह-सा सर्वस्व समर्पण
राणा-सा वह आत्मोत्सर्ग.....!
मन में रहता यह मलाल
कहाँ हैैं भारत माँ के ऐसे लाल.....?
हे ईश्वर ! तू गढ़ दे फिर से
भामाशाह से दानी वीर
राणा प्रताप सा नेतृत्व दे दे
धरा शिरोमणि है अधीर.........
