मेरी सब्जी सारी जल गयी
मेरी सब्जी सारी जल गयी
सारी रात जग -जग के,
एक कविता मैंने बनायी !
मंथन किया रूप दिया ,
सज संवर के सामने आयी !!
मन में मेरे ख्याल आया,
सबसे पहले अपनी
श्रीमती को सुनाऊ !
अपनी रचनाओं का कौशल,
उन्हें भी दिखाऊं !!
सुबह वो लगीं थीं ,
भोजन के इन्तज़ाम में !
मैं भी लगा हुआ था ,
अपनी कविता के ध्यान में !!
मैंने कहा -" देखिये अपन ,
कविता आपको मैं सुना रहा हूँ !
आप हमारी पहली श्रोता हैं ,
आपको अपनी प्रतिभा दिखा रहा हूँ "!!
उनकी स्वीकृति मुझे मिल गयी ,
उन्होंने कहा -" मुझे मधुर आवाज़
अपनी कविता सुना दें
ह्रदय मेरा जुड़ा दें !!"
मैंने भी यूँ कहा -
" तालिओं से मेरी हौसला ,
अफ़जाई करेंगे !
कविता मेरी अच्छी लगे तो ,
वाह-वाह भी करेंगे "!!
आवाध गति से हम ,
अपनी कविता पढ़ने लगे !
कवि सम्मेलन की भंगिमाओं में ,
डूबने लगे !!
मुझे अपनी कविता पाठ का ,
आनंद आ रहा था !
अपनी कवि की प्रतिभाओं को ,
छलका रहा था !!
कुछ क्षणों के बाद ,
मेरी कविता समाप्त हुयी !
उनकी मौनता को देखकर ,
मेरी उत्सुकता जगी !!
मैंने पूछा -" मेरी कविता
कैसी लगी ?"
" छोड़ीये ...अपनी इस कविता को ,
मेरी सब्जी सारी जल गयी !!"
