मेरी माँ......
मेरी माँ......
क्या बताऊँ कितना कुछ सहती हैं
वो माँ है कहाँ कुछ कहती है,
जिंदगी गुजार देती हैं।
सिर्फ आँगन को गुलजार करने में,
आखिर इतनी दूरी क्यों माँ को समझने में।
बिना तनख्वाह के जो रोज काम करती है,
बिना जगाए अलार्म से पहले खुद उठ जाती है।
आखिर तनख्वाह में हमे देना क्या चाहिये,
आप सब की राय क्या हैं ये आप सब ही बताइये।
सीने के दूध से लेकर खून तक से सींचती हैं,
आज उसी को धन्यवाद कहने में न जाने आँखे क्यों भिजती हैं।
संसार की भी अद्भुत माया हैं,
ईश्वर ने खुद से पहले माँ को बताया है।
दुःख की गगरी सी छलकती हैं ,
माँ के बगैर तो कन्हइया की आँखें भी तड़पती हैं।
वो पहले बेटी फिर बहु बनती,
सबकी सुनती, खुद चुप रहती।
एक अजीब सी विडम्बना हैं मुझमे भी
माँ पूरा घर सम्भाल लेती,
मैं सिर्फ एक काम करने में सदमे में होती।
प्रकृति से लेकर सबसे पूछ आये,
है माँ से प्यार कहीं और तो कोई मुझे भी बताए।