तनख्वाह....
तनख्वाह....
महीने के अंत में कुछ कागज जैसी कुछ आती
अम्मा जिसको बाबा की तनख्वाह बताती
कितना बाबा संघर्ष
उस कागज जैसी तनख्वाह कमाने में
अम्मा भी महीने के खर्च से खूब लड़ती
उस तन्ख्वाह को बचाने में
कहते हैं ..पैसे खुशियाँ नहीं देते है पर क्या यह सच है
बिन पैसे के तो किसी के सर के ऊपर न ही छत है
बीमार की बीमारी दवा में तभी तबदील होती है
जब जेब की औषधि रूपी पैसे हो...
बेटी बोझ नहीं
पर उसकी विदाई इतनी भी सरल नहीं....
महीने की तनख्वाह में सिमट में रह जाता किसी का बचपन
तो किसी के सपने में भी अड़चन लाता है यह बचपन....
पिता के मौन में भी एक जिक्र और न चाहते हुए वाली फिक्र है तनख्वाह
औलाद की ख्वाहिश पूरी करने की एक रास्ता है तनख्वाह
बेटी की बिदाई का बोझ संभालने का नाम भी है तनख्वाह
और कुछ बचे तो बुढ़ापे की लाठी है तनख्वाह
