मेरी अध्यापिका
मेरी अध्यापिका
मैं एक मिट्टी सी मूरत थी ।
अध्यापिका की पहली सूरत ही
आंखों में हरदम बसती थी।
वो ज्ञान बहुत सा रखतीं थीं
लाड़ अलग सा देती थी
कुछ मां जैसी वो लगती थी।
कुछ देवी सी वो दिखतीं थीं।
जब मैं थोड़ा बड़ी हुई
बड़ी बड़ी बाते करती थी
तब दीर्घ हिमालय बनती थी
मेरे सपनों को ऊंचाई
वहीं तो देती थी।
जब सपने अधूरे रहते थे
जीवन में कुछ राह भटकते होते थे ।
आशा और उम्मीदों की तस्वीरें
वही बनाया करती थीं।
जीवन की हर उलझन को
वही सुलझाया करती थीं।
मेरी अध्यापिका मुझ में
अपने को ढूंढा करती थीं।