ग्रीष्म
ग्रीष्म
माधव मालती छंद
विधान- सम मात्रिक छंद
गणावली- ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ, ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ
॥श्री वागीश्वर्यै नमः॥
ग्रीष्म
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ग्रीष्म तीखा ताप देकर, भू सतह को है तपाता।
भानु अपनी रश्मियों से, नीर भूतल से सुखाता ।
जीव व्याकुल है तड़पते, मृत्यु का है भय सताता।
शक्तिशाली ग्रीष्म भय से, भीत होकर सिर छुपाता॥१॥
राह चलते हर पथिक को, प्यास पल-पल है सताती।
मूल्य जल का तीक्ष्ण गर्मी, इस जगत को है बताती ।
कष्ट आतप का मिटाए, छाँव सबको है सुहाती ।
धर्म मेधा अब मनुज की, प्यास प्याऊ से बुझाती॥२॥
वृक्ष सारे इस धरा के, ताप सारा सोखते हैं ।
पी विषों को वायु के वे, नित कवच को जोड़ते हैं।
हरितिमा की मोहिनी से, जीव जग को मोहते हैं ।
बैठ छाया में पथिक भी, बाट प्रिय की जोहते हैं॥३॥
सूखता रस देह का जब, लोग रस हैं खूब पीते।
नीर जो भी हैं बचाते, जीव जीवन दीर्घ जीते ।
रस बिना सब जिंदगी में, नित्य रहते जीव रीते।
जब धरा पर मेह बरसे, जान लो दिन ग्रीष्म बीते॥४॥