मेरे मन भावों को!
मेरे मन भावों को!
मेरे मन के भावों को-
कैसे पढ़ लेती है,
एक स्त्री ?
एक तरुणी ?
बनता हूं मैं अति गूढ-
फिर भी -
वह जान जाती है
मन की तरंगो को
अन्तस की लहरो को
ललचाते हुए भावों को !
जब मैं बच्चा था-
कोई न जानता मुझे
जानती केवल मां
क्यों रो रहा है?
भूख लगी होगी,
गिला करा होगा।
एक स्त्री ने पैदा किया
स्त्रियों के समूह ने पाला
दादी ने दुलराया पुचकारा
बुआ ने रूठने पे खिलाया
बहन ने पढ़ना सिखाया।
सबके बिना मैं कुछ नही बनता
आज पत्नी ने हक जमाया
मुझे अपनी जागीर बनाया
भला पहले की स्त्रियां न होती।
यह रियासत कैसे खड़ी होती
वे सब निःस्वार्थ थी-
इसलिए वे बंदनीय रही
सदा ही पूजनीय रही।
हर स्त्री में मां की मूर्ति है
तभी वह जान जाती है
मेरे मन के भावों को,
अन्तस की लहरो को !
