मेरे लफ़्जों से
मेरे लफ़्जों से
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छुपा के अपनी आँखों का आब रखते है
सीने में दबे दर्द के कुछ सैलाब रखते है।
उलझने कुछ कम न थी ज़िन्दगी में
और तुम नज़रे मिलाने आ गए।
तेरे खतों का सिलसिला अब खत्म हो गया है
मॉडर्न हो गए हो या मोहब्बत नही रही।
तुम्हें मेरी मोहब्बत के फ़साने क्या सुनाऊँ
जो रहे अधूरे को तराने क्या सुनाऊँ।
होती होगी ग़ैरों से मुलाकात तुम्हारी
हम तो रहे भीड़ में भी अकेले ये किसको बताऊं।
काश कि तुमको समझा सकता
ये इश्क़ मेरा गलत तो नहीं।
बस चाहते तुम्हारी खुशी है
चाहें रहे साथ मेरे ग़म गलत तो नहीं।