मेरे कान्हा....
मेरे कान्हा....
वासुदेव निकले लेकर टोकरी भरी हुई जो कृष्णा से
आजीवन की मिट जायें प्यास ऐसी प्यासी मृग तृष्णा से
रात काली अँधियारी भिंग रही थी सावन की बौछारों से
सो रहा था जीवन सारा जब निकले कान्हा मथुरा की गलियारों से
जन्म होते ही छूट गयें माँ-बाबा हाथ की लकीरों से
ऐसा जीवन पाया कान्हा लड़ते रहे ताक़तवर दीवारों से
माँ यशोदा के लाडले सजायें जीवन संगीत बहारों से
माखन-मिश्री अति प्रिय तुम्हें जो लाख चुरायें गोपियों से
यमुनाजी के तट पे तुमने रास रचायी छेड़े साज बाँसुरी से
मुखकमलों पे मंदस्मित सदा वृंदावन की सहज माधुरी से