मेरे गाँव का क्या कहना
मेरे गाँव का क्या कहना
मेरे गाँव का तो क्या कहना।
मेरे दिल में बसता है, जैसे हो,
मेरे दिल का नायाब गहना।
वो झुरमुटों से झाँकते साँझ सवेरे।
उगते सूरज साथ नाचता आलम वो,
वो काली- काली घटायें बादल घनेरे।
बेपरवाही से दौड़ें, खेतों की मुंडेरे -मुंडेरे।
कहीं माटी के, कहीं गोबर, भूसे के ढेरे,
संग बहना वो पानी के तीरे तीरे।
आँगन में गाय, भैंस की वो रुबानियाँ।
कभी जुगनुओं, ऊल्लू की चमकती वो आँखें,
फिर चिपक कर सोना दादी से सुनकर कहानियाँ।
सुबह - शाम मंदिरों में बजती वो घंटियाँ।
याद आती हैं बहुत स्कूल में, वो मुर्गे बनते बच्चे,
और फिर मास्टर जी से पड़ती वो संट्टीयाँ।
वो झुकी पलकों के चलते थे तीर जब धीरे-धीरे।
उफ़, थम ही जाती थीं साँसे मुहब्बतों की,
ऐसे ही साँस लेता है गाँव मेरा, मुझमें आज भी धीरे-धीरे।
