मेरा गांव
मेरा गांव
सोचा गांव चलू फिर इक बार,
बडा सा आगंन, बाहर चबूतरा,
उस पर ठण्डी नीम की फुहार,
टेडी-मेडी सडकें, गलियां,
जिन पर लगता रेला सा,
हर कोई जहां लगता अपना,
लगता था जहां मेला सा।
अब भी मन मस्तिष्क पटल पे,
यादे हैं जो सुनहरी सी,
जहां जाकर लगता हैं कुछ पल,
जिन्दगी हैं ठहरी सी।
पर... ये क्या हो गया मेरे गांव को ?
क्या हुआ उस नीम की छांव को,
यहां के घर भी अब फ्लैट हो गए,
नुक्कड पे अब मॉल बन गए।
खेत खलिहान सब उजाड़
पूरा रूप अब दिया बिगाड़,
ना वो गलियां ना चौराहे,
ना वो खुशियों की राहें।
शहर बनने की होड में,लुट गया मेरा भी गांव,
अब तो यहां के लोग भी हो गए शहरो से ज्यादा बेइमान।
कोई फरक न रह गया
मेरा गांव अब वो गांव न रह गया।
क्या से क्या हो गया,
लोगो ने कहां तो समझ आया के,
कल तक था गांव, आज ये भी शहर हो गया,
आज ये भी शहर हो गया।