मौसम-ए-बहार
मौसम-ए-बहार
सुनहरी-सी खिली धूप में खिल रहा है मेरा मन।
लिए मौसम-ए-बहार आया है बसंत मनभावन।
जैसे भँवरा उड़-उड़ गुनगुनाए कोई प्रेम-गीत,
फूलों से करें बातें बन जाए उनका मन-मीत।
कोमल ओस की ये बूँदें बिखरी हैं जैसे मोती,
उदीयमान कुछ ऐसे-जैसे मंदिर में दिव्य ज्योति।
चहूँ दिश फैली उजियाली आई लौट खुशहाली,
सरसों के खेत झूमे फसलों में छाई हरियाली।
मन मेरा झूमता है बन कर रंग-बिरंगी तितली,
हरियाली की ओढ़ चादर प्रकृति फिर से खिली।
फूटती हैं नव-कोपल बागों में कूकती हैं कोयल,
प्रकृति के नव-सृजन से चारों तरफ है हलचल।
