मौनता... प्राचीन पीड़ाओं की
मौनता... प्राचीन पीड़ाओं की
कितनी प्रिय है मुझे मौनता,
जब भी इसकी अथाह गहराई में उतरती हूँ
स्वयं को एक सुप्त शिशु सा पाती हूँ,
जिसके मुखमंडल पर
होती है मंद निष्कपट स्मिता
किंतु हजारों प्रश्नों की चादर ओढ़े
कई कष्टों को अपनी मुट्ठी में समेटे
अंगड़ाई लेता हो ...
धीमे प्रकाश में... गहन स्वप्नों को
निद्रा नदी के तट पर प्रतीक्षा करते
देखती हूँ...
जो बह नहीं पाते.. चक्षु पटल पर
ठहर जाते हैं... आगत रात्रि के लिए....
कुछ क्षण, खोजते हैं उपमाएँ
इस मौन आवरण की आवृत्ति के लिए
मैं फिर रक्त शिलाओं को
स्पर्श देती हूँ आश्वासन का...
कई श्वेत चिह्न मिलते हैं, विवशता के
कई नीले क्षतों के,
मैं स्पर्श देती हूँ..
एक अंतरीप बन जाता मेरा शरीर
जहाँ.. अश्म ही अश्म है प्राचीन पीड़ाओं के।