व्यथा
व्यथा
मैं नहीं ठहरती समीर की सीमाओं में
न मैं बुझती सागर की क्षुधा में
मैं नग्न रेणु सी उड़ जाती हूँ
शीतल शुष्क पर्णल वृक्षों की गहनता में
मुझे मृत आकांक्षाओं में जीने दो ।
मुझे ईंगुरी शवों पर सो जाने दो ।
मैं रक्त सा बहती हूँ
शांत धीर सागरीय तट पर
अभिशप्ता धारा सी झरती हूँ
निर्जीव प्रस्तरों पर... अनेक अंतर्वेदना लिये
मुझे प्रश्न नहीं करती
मौन मेघीय कृष्णिमा
मुझे आश्लेष में नहीं लेती
आत्मश्लाघा की क्रूर रश्मियाँ
मैं झरती रहती हूँ अनंतर
किसी मुग्धा मोहिनी के दृगों से
असहिष्णु अश्रुधारा सी
मुझे श्मशान की मौनता में
ध्वनित होने दो...
मुझे शब्दकुंजों में विलीन होने दो ।
मरू मृत्तिका मैं
अंबुदों की घनी परछाई में
मृगतृष्णा सी हूँ
मेरी सुर ग्रंथियों में घनीभूत है अस्पष्टता
असंख्य चीत्कारों की है लहर
मैं गंध पारिजात की करती अभिलाषा
परंतु... स्वप्न निर्झरिणी बह जाती है
तमिस्र ही भाग्य है
क्षितिज की उष्ण तारिका सी
अस्त होती हूँ
दिवस की लालिमा में
सांध्य मुखमंडल की आभा में....
मेरी समाधिस्थ इच्छाओं को संभवतः
अंतरिक्षीय सुधा दिये बिना
पृथक कर रही मुझे मेरी विवशता
मुझे अश्पृश्य ऊसर वृत्तांश बने रहने दो ।
मुझे अश्पृश्य ऊसर वृत्तांश बने रहने दो ।