मैं . . स्त्री!
मैं . . स्त्री!
हवा हूँ मैं अदृश्य - सी, आसपास तुम्हारे
साँसो में घुल जाऊँ पर दिखाई न दूँ।
खुशबू हूँ मैं, मादकता से महकूँ, खयालों में
महका दूँ , बहका दूँ तुमको, पर छूने न दूँ।
झरना हूँ मैं चंचल, पानी से भरा छल -छल,
छू लो चाहे तो, पर पकड़ न पाओ।
बिजली हूँ मैं तेज़, चकाचौंध कर दूँ।
क्षण भर कौंध जाऊँ, फिर दिखाई न दूँ!
शोला हूँ मैं जलती आग का, जो जला दूँ,
साथ- साथ स्वयं भी जलूँ, पर बुझाने न दूँ।
आसमां हूँ मैं संरक्षण का छत्र सिर पर
धूप तुम्हें लगने ना दूँ, तो मेरी छाँव भी न रखूँ।
धरती हूँ मैं विशाल हृदयी, ज़िंदगी तुम्हें दूँ, पालूँ,
सुख-दुख सहकर निश्चल रहूँ, पर तुम्हें चैन न दूँ।
मैं प्यार हूँ दिल में बसा हुआ, तुम्हें प्रेरित करूँ,
जो पास मैं आने न दूँ, तो दूर भी तुम्हें जाने ना दूँ!