मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
पूछते हो तो सुनो
इतनी पवित्र थी कि
द्युलोक में निवास था मेरा
वेगवती इतनी कि
शम्भु की जटाओं ने साधा मुझे
फिर हिमालय की उतुंगता को चीरकर
धरती की अंक में समाई
और चलती रही सतत
जहाँ जहाँ कदम पड़े मेरे
सभी ने हृदय से लगाया
और दिया एक नया नाम
और मैं बहती रही
एक और नाम के साथ
मेरी लहरों को मेरे हर जलकण को
मैंने दी अपनी सम्पूर्ण पवित्रता
और तुम प्रक्षालन करते रहे मुझसे
अपने कुकर्मों का
तुमने अपनी सारी पीड़ा
मुझमें पखार दी
और मैं सहेजती रही उसे
अपने विशाल आँचल में
तुमने मुझे माँ कहा
और मैंने सारा ममत्व
उड़ेल दिया तुम पर
पर तुमने क्या किया
स्व के अर्थ में तुम भूल गए
एक माँ को उसकी सन्तान
नहीं दिया करती
इतनी कलुषताएँ ,इतने पंक
कि पवित्रता का अंश ही शेष ना रह पाए
कभी धर्म के नाम पर
कभी कर्म के नाम पर
तुम करते रहे मुझे कलंकित
मेरी धवलता को हर लिया
तुम्हारे पाखण्डों ने
और कहते हो मुझसे
कि मैं अपाक हो गयी हूँ
अरे निर्लज्ज ! तुम नहीं जानते
मेरी लहरें ही उल्लास देती हूं
और उन्हीं में विनाश भी समाया है
माँ हूँ मात्र इसीलिए क्षमा दान देती हूँ
अब भी सम्भल जाओ
अन्यथा याद रखो
प्रलय मुझमें ही रहता है कहीं।
