मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ

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मैं नदी हूँ
बहती असीम
जलधाराओं के साथ,
आदि से अन्नत तक,
कभी ना रूकी मैं
कभी ना झुकी मैं
लाख बेड़ो को पार कर
चट्टानो को चीरती मैं,
कभी पगडंडी से,
तो कभी खेतों से
गुजरती मगन मैं
हरदम झूमती
बरसती झरनों संग,
उच्चाइयों से गिरती
तरूण बेलो से होती हुई
गुजरती हर गाँव
हर शहर से
ना अहंकार, ना द्वेष
कभी नालो को मिलाती
तो कभी स्वयं मिल जाती
हर गंदगी को धोती
फिर भी पावन
मैं बन जाती।
जा मिलती सागर
मैं पल में विशाल
असीम बन जाती।
फिर निकल पड़ती
उसी क्षण एक अलग
राह में रूकती नहीं मैं
क्योंकि मैं नदी हूँ।