मैं कविता हूं
मैं कविता हूं
भावों में.... शब्दों में....
रसों में....छंदों में.....
कहीं मुक्तक....कोई दोहा....
पद्य , गद्य या छंदमुक्त....
कभी नवकविता.....
कहीं नवगीत.....
सुशोभित अलंकारों से...
सतत्......
रची जा रही हूँ मैं......
नदियां ,पर्वत,....
भीने भीने हवा के झोंके....
धरती आकाश, सूरज चाँद...
ढल जाती हर साँचे मे...
मूर्त सृजन बनकर....
नित नया रूप मिलता
शब्दों के अवगुंठन से.....
हृदय की टीस....
समाज की मलीनता....
भर जाती कभी दर्द से...
बरसाती कहीं प्रेम धार..
तो कभी उगलती ज्वाला भी...
सभी की हूँ..
सबके लिए हूँ मैं....
युगों से कर रही हूँ विचरण
जन मन मे.....
करते हुए आंदोलित उद्घोष..
कितना वृहद विशाल संसार मेरा
हर शब्द मुखर, अर्थ प्रहार मेरा
किंतु,
कभी कभी घायल हो जाती हूँ मैं
जब जब चोरी हो जाती हूँ मैं......
